Friday, October 19, 2018

उत्प्रेरक



किस्सा एक पेड़ का है
जो इतने वर्षों में
एक छोटे से अंकुर से
बढ़ते बढ़ते अब
एक विशाल वृक्ष बन गया है।

जूझता, बचता आंधी तूफानों से
उन्हीं से वायु और जल चुराकर
उसने अपने कोंपलों को फैलाया
तना डंठल से तना बना
शाखाएं बनती बढ़ती गईं
जुड़ते गए पत्ते ।

अब वह पेड़ सिर्फ फल ही नहीं देता
व्यथितों की छांव भी है
और हवा में ऑक्सीजन घोलता
ना जाने कितने अनजानों
की वजूद का वजह भी है।

शायद अब  वह और  बड़ा ना हो
एक वक्त के बाद तना
बाहर से बदलता नहीं
बस हर साल अपने अंदर
एक नया वृत्त जोड़ लेता है।

यह वृत्त, शायद खुद को
नए बोझ - बंधनों से सरोकार
नए जोश से नई प्रतिबद्धता
और कुछ नए वादों
के लिए कमर कसाई है।

नए पत्ते अब भी लगते हैं
टहनी की छाल भी बदलती है
हर साल फल भी मिलते हैं
पर कुछ ऐसा भी है
जो आंखों से दिखता नहीं।

लगातार मजबूत होती जड़ें,
एक एक कर तने में बनती वृत्त
नित घनी होती छांव
और सबके जीने का आधार
ऑक्सीजन ।

Friday, September 9, 2016

प्रश्न

शायद योग की एक परिभाषा 
'चित्त की वृत्तियों का निरोध' भी है। 
गीता में स्थितप्रज्ञ और वीतराग 
को ही मुक्ति का अधिकारी कहा गया है। 
तो क्यों न ऐसा योगी बना जाये ?

पर गीता में यह भी लिखा है कि 
मानव तन का संस्कार से परे होना संभव नहीं। 
मन का निर्विचार होना भी दुस्साध्य है। 
परिस्थितियों से अप्रभावित, निर्विकार, 
'दुःख सुख में सम' फिर कैसे रहें ?

पर सोचो ये लड़ाई ही क्यूँ ?
मुक्ति में ऐसा क्या है ?
यह भव-बंधन क्या कष्टों का ही बंधन है ?
इस चक्कर से निकलने की ख्वाहिश ही क्यूँ  ?
और फिर क्या यह भी एक 'इच्छा-मात्र' नहीं ?

क्या अंतस की सहज प्रकृति 'निर्लिप्त' रहना ही है ?
फिर क्या शरीर में बंधी आत्मा सज़ा-याफ़्ता नहीं ?
अगर है तो क्या जेल तोड़कर भागने की इच्छा 
हमें पुनः अपराधी नहीं बनाती ? 

तन संस्कार छोड़ नहीं सकता, आत्मा वृत्तियों से अछूती है 
फिर ऐसे विपरीत गुण वाले तन को आत्मा से जोड़ा ही क्यों गया ? 
क्या ईश्वर ने आत्माओं को दर्ज़ों  में बाँट रखा है 
जिसमें ऊपर वाले मुक्त और नीचे वालों को जेल होती है ?
फिर क्या वो परमात्मा भी विभेदों को नहीं पाल रहा ?
और बिना समत्व के क्या वो खुद मुक्त है ?

शायद मुक्त वही है जिसे इन प्रश्नों के उत्तर की जरुरत ही नहीं।  

Sunday, September 7, 2014

 टूटा फूल कनैल का 

अभी अभी तो नींद खुली थी
चारों तरफ हरी डाली थी
और थे पत्ते , लम्बे , पतले
मुझे सहेजे , गोद में रखके

झुरमुट की फुनगी पर मैं था
अंतर मेरा मृदु रसमय था
हवा महकती झूम के बोली
'स्वागत', मैंने पंखुरियाँ खोली ।

मैंने देखा वो पेड़ बड़ा था
जिसके शीर्ष पे मैं  खड़ा था
भूरे तनें , हरे पत्ते थे
सबपे पीले फूल लगे थे ।

हाँ फर्श पे भी कुछ फुल पड़े थे
शायद  ऊपर से ही गिरे थे
तभी हवा का झोंका आया
कुछ फूलों को तोड़ गिराया ।

देख के मंज़र मैं सहमा था
तभी इक भँवरे ने चूमा था
मेरे मीठे रस में चिर-द्युत
हाय, स्पर्श कितना था अद्भुत ।

वो उड़ा, मैं अब सूखा था
फिर से आओ, मैं चीखा था
अब वो नहीं, बस झोंका आया
फुनगी से टूटी मेरी काया ।

क्षण में अंतिम पथ पर आया
प्राणहीन, रो भी न पाया
गिरा, कुछ पंखुरियाँ टूटी
चारों तरफ थी केवल मिट्टी ।

ऊपर दृश्य वही, बस मैं मृत
बस मैं अपने अंत से व्यथित
फूल भी उतने, पेड़ वही था
रत्ती भर न फर्क पड़ा था ।

कितना क्षण-भंगुर है जीवन
पल भर बचपन, पल भर यौवन
अंत मगर सबका निश्चित है
पर तू इससे क्यों विचलित है ।

खुशबू और खुशियां फैलाओ
झूमो, महको, हँसो, हँसाओ
दो पल ही जीना हो, तो क्या
कुछ तो अच्छा कर के जाओ ।

Thursday, November 11, 2010

ज़िन्दगी दौड़ रही है और हम थम गए हैं...
दिन ब-दिन अरमान भी कुछ कम गए हैं..
ख्वाहिश नहीं की चाँद तारे तोड़ लायें...
खुद के ही नूर-ए-पाक में हम रम गए हैं...

Tuesday, March 30, 2010

मैं कागज़ काले करता हूँ ......

बैठ अकेले नदी किनारे, क्या क्या सोचा करता हूँ
और न जाने कब तक कितने कागज़ काले करता हूँ
लिखकर अपने मन की बातों को जब वापस पढता हूँ
फाड़ उसी कागज़ को मैं पानी में फेंका करता हूँ ।

ना जाने कितने पन्नों को ऐसे मैंने बर्बाद किया
जाने कितनी शीशी स्याही, नद्नीर में यूँ हुमाद किया
उन्माद कहूँ क्या कैसा ये, ये हाथ नहीं थकते मेरे
कोरे कागज़ पे स्याह चलाने, फिर से कलम पकड़ता हूँ ।
मैं कागज़ काले करता हूँ ।

अकेला

हूँ अकेला भीड़ में, चलता जिधर को पग निकलते
और मैं चलता ही जाता, रास्ते जब तलक चलते
मील के पत्थर जो छूटे, राह पर क़दमों के पीछे
मुस्कुरा करके कहा सबने, चला चल तू अकेला .

आँख में मंजिल न कोई, ना कोई सपना ही मेरा
ठौर भी है नहीं जिसको, कह सकूँ अपना बसेरा
जाऊं भी तो जाऊं मैं किस ओर, कोई ये बता दे
दुनिया झूठी सच न इसमें, चार दिन का बस झमेला .

और बंधन तो न थे, बस एक तुझमें मन रमा था
मुझ अकेले को तेरे आने से एक साथी मिला था
बांह पकड़ी तूने मेरी, लगा कुछ ना शेष जग में
प्यार हरसूं और हर पल एक मधुर रस प्रेम-बेला .

चाहता था संग तेरा, तुझे ईश्वर मानता था
हर घडी हर पल तेरी आराधना में कानता था
साथी पर जाने हुआ क्या, बांह तुने यूँ झटक दी
मानो निवाले का मैं कीड़ा, टूटा अरमानों का मेला .

खैर साथी शुक्रिया तेरा मिली अब राह मुझको
जाना ईश्वर ही है मेरा, अब वहीँ जाना है मुझको
देखो मुझसे कह रहे वो, छोड़ सब कर मुझसे प्रीति
मैं हूँ तेरा, तू है मेरा, कौन कहता तू अकेला .

उनका दिया ये दिल, कहो उनके सिवा किसमें लगाऊं
दुनिया है एक स्वप्न झूठा, झूठ में सुख कैसे पाऊं
भेद बतलाने ये साथी तुम गुरु बन के थे आये
जीवन समर्पित अब तुम्हे, फिर मैं कैसे कब अकेला .

Friday, May 8, 2009

शायद अब आ जाए साकी तो तरस

शायद अब आ जाए साकी को तरस
दो बूँद ही दे जा, नहीं माँगू कलश

आस में की मिलती तेरी इक झलक
धूप में चलता रहा हूँ अब तलक
नैन दोनों खो चुके हैं नीर अपने
होंठ भी है सुर्ख, मरुभूमि से नीरस
शायद अब आ जाए साकी को तरस......

बीता जीवन सूखे कंटीले रास्तों पर
रह गए बादल सभी केवल गरज कर
ओट में छुपती रही मंजिल हमेशा
किंतु मैं बढ़ता रहा, हो निश-दिवस।
शायद अब आ जाए साकी को तरस......

मंजिल तो ना मिली पर मिल गया साकी
जाम दे ऐसी, रहे न चाह बाँकी
हूँ अकेला एक तेरा ही भरोसा
आ भी जा की साँस कुछ बाँकी है बस
शायद अब आ जाए साकी तो तरस......

जीवन मेरा, कैसे कहूँ, सचमुच है मेरा
मेरी कभी चली नहीं, बस चला तेरा
है सत्य तू ही, जान ले ये रूह मेरी
कर दे सवेरा, दिखा जा एक दरस।
शायद अब आ जाए साकी को तरस......